आज कथापुरुष,अमर कहानीकार,जिनकी रचना हम सब के जेहन में आज भी जीवित है
#स्वचंद्रधरशर्मा_गुलेरी जी के जन्मदिवस7 जुलाई पर उन्हें शत शत नमन।
हम सबको उनकी यह रचना याद है
उसने कहा था…..
तेरी कुड़माई हो गई….?
शायद यही पर्याप्त है,
हिन्दी साहित्य में बहुत कम रचनाओं के बावजूद जो साहित्यकार अमर हुए हैं, उनमें से एक श्री चन्द्रधर शर्मा‘गुलेरी’ का जन्म 7 जुलाई, 1883 को संस्कृत कॉलिज,जयपुर के प्राचार्य महोपाध्याय पण्डित शिवराम शास्त्री के घर में हुआ था। इनके पूर्वज हिमाचल प्रदेश के काँगड़ा जिले में स्थित गुलेर गाँव के मूल निवासी थे। इसी से यह वंश ‘गुलेरी’ कहलाया।
शास्त्री जी प्राचार्य के साथ-साथ जयपुर राजदरबार के धार्मिक परामर्शदाता भी थे। उनकी पत्नी श्रीमती लक्ष्मीदेवी भी विदुषी तथा धर्मपरायण महिला थीं। इसका प्रभाव इन पर भी पड़ा। छह वर्ष की अवस्था में ही इन्होंने अमरकोष के सौ से अधिक श्लोक तथा अष्टाध्यायी के दो अध्याय कण्ठस्थ कर लिये थे।
11 वर्ष की अवस्था में इन्होंने पण्डित दीनदयाल शर्मा एवं महामना मदनमोहन मालवीय जी द्वारा स्थापित‘भारत धर्म महामण्डल’ के वार्षिकोत्सव में सबको अपने धाराप्रवाह संस्कृत भाषण से सम्मोहित कर लिया था।
1897 से इनकी विद्यालयीन शिक्षा प्रारम्भ हुई। छात्र जीवन में प्रायः सभी परीक्षाएँ इन्होंने प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण कीं। इससे इन्हें अनेक पुरस्कार, छात्रवृत्तियाँ तथा सम्मान मिले। इनका हिन्दी, संस्कृत तथा अंग्रेजी भाषा पर अच्छा अधिकार था। इसके अतिरिक्त ये अनेक भारतीय तथा विदेशी भाषाओं के भी जानकार थे। 1900 ई. में इन्होंने नागरी प्रचारिणी सभा, काशी के सहयोग से जयपुर में ‘नागरी भवन’ की स्थापना कर उसके पुस्तकालय को दुर्लभ ग्रन्थों एवं पाण्डुलिपियों से समृद्ध किया।
1902 में शासन ने जयपुर के मान मन्दिर का जीर्णोद्धार कराया, तो अंग्रेज अभियन्ताओं के साथ इन्हें भी परामर्शदाता बनाया गया। फिर इन्होंने कैप्टन गैरट के साथ ‘जयपुर आब्जरवेटरी बिल्डर्स’ नामक विशाल ग्रन्थ का निर्माण तथा ज्योतिष के प्रसिद्ध ग्रन्थ ‘सम्राट सिद्धान्त’ का अंग्रेजी अनुवाद किया। 1904 में वे मेयो कॉलेज, अजमेर में संस्कृत के अध्यापक बने।
वे हिन्दी तथा संस्कृत की अनेक सभा, समितियों के सदस्य तथा अध्यक्ष रहे। भाषा-शास्त्रियों में उनकी अच्छी ख्याति थी। उनकी प्रतिभा देखकर 1920 में शारदा पीठाधीश्वर जगदगुरु शंकराचार्य ने उन्हें ‘इतिहास दिवाकर’ की उपाधि से विभूषित किया था। इसी वर्ष मालवीय जी के अनुरोध पर उन्होंने काशी हिन्दू विश्वविद्यालय में प्राच्य विभाग के प्राचार्य का पदभार सँभाला।
गुलेरी जी ने 1900 से 1922 तक प्रचुर साहित्य रचा;जो तत्कालीन पत्रों में प्रकाशित भी हुआ; पर वह सब एक स्थान पर संकलित न होने के कारण उनका सही मूल्यांकन नहीं हो पाया। ऐसी मान्यता है कि उन्होंने केवल तीन कहानियाँ लिखीं; पर उन्हें अमर बनाने का श्रेय उनकी एक कहानी ‘उसने कहा था’ को है, जिसमें प्रथम विश्वयुद्ध की पृष्ठभूमि में किशोर अवस्था के प्रेम का बहुत मार्मिक वर्णन है।
गुलेरी जी अपने गाँव वर्ष में एक-दो बार ही आते थे; पर उनके साहित्य में पहाड़ी शब्दों, कहावतों, परम्पराओं,नदी, पर्वतों आदि की भरपूर चर्चा है। यह उनके प्रकृति के प्रति अतिशय प्रेम का परिचायक है।
27 अगस्त, 1922 को उनकी भाभी का काशी में देहान्त हुआ। उस समय उन्हें तेज बुखार था। शवदाह के बाद एक साथी के दुराग्रह पर उन्होंने भी गंगा जी में स्नान कर लिया। इससे उनका स्वास्थ्य बहुत बिगड़ गया और सन्निपात की अवस्था में केवल 39 वर्ष की अल्पायु में 12 सितम्बर, 1922 को वे चल बसे।